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Showing posts from 2012

दर्द का एहसास और आंसू की परख

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उसकी रोजी-रोटी  का जरिया लकड़ी काटना था. उसी से बुधारू के परिवार का पेट पलता था. दिनभर पसीना बहते लकड़ी काटने से जो रुपये मिलते थे, उससे वह अपने परिवार की जरूरतें पूरी किया करता था. इस पुश्तैनी काम का सिलसिला आगामी पीढ़ी में भी  चलता रहे, इसी प्रत्याशा से बुधारू जब भी लकड़ी काटने जाता, अपने बेटे रामपाल को भी वह साथ ले जाता. अमूमन हर दिन वह अपने बेटे को अपने सामान लकड़ी काटने प्रेरित किया करता था पर रामपाल ने कभी उत्साह ही नहीं दिखाया. जब-जब भी वह अपने पिता को लकड़ियाँ काटते देखता था तब-तब वह कटी लकड़ियों के दर्द का  एहसास अपने जेहन में किया करता था.  एक दिन बुधारू ने उसके हाथ में जबरिया फावड़ा थमाते हुए लकड़ियाँ काटने उसे मजबूर किया. अब दोनों लकड़ी काटने लगे. कुछ देर बाद फावड़े की मार रामपाल के पैर में लगी और वह लहूलुहान हो गया. अपने बच्चे की यह दशा देख बुधारू बिलख पड़ा. रामपाल कहने लगा- "रोने-गाने की जरुरत नहीं है. ऐसा मैने जान बूझकर किया है. मैने स्वयं अपने पैर में फावड़ा  मारा है". बुघारू कहने लगा-" बेटे तुमने ऐसा क्यों किया..? " रामपाल का जवाब था- " मुझे हल्की मार ल

अब नहीं पीटेगा वह !

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" मेरी क्या गलती है ...मुझे क्यों मार रहे हो...आप जैसा बोलते हैं , वैसा ही तो करते आ रही हूँ....मत मारो...मुझे मत मारो..." इन्हीं चीखों के साथ एक घर के अन्दर से महिला के जोर-जोर से रोने की आवाज़ आ रही थी. बाहर लोगों की भीड़ जुटी थी. हर आने-जाने वालों का वहां रुकना हो रहा था. दरअसल माज़रा ही कुछ ऐसा था कि न चाहते हुए भी लोगों के कदम थमने लगे थे. उनके कुछ पड़ोसी काफी कुछ समझाने का प्रयास कर रहे थे पर पतिदेव मानने तैयार नहीं थे. अपनी पत्नी को बस पीटे जा रहे थे. पड़ोसियों ने जब उससे पीटने का कारण पूछा तो चौकाने वाला जवाब आया. वो कह रहा था-" सोंचा था,  अब की बार लड़का पैदा होगा लेकिन दूसरी बार भी इस करमजली ने लड़की ही पैदा की  है. लड़का होने की प्रत्याशा में मैंने क्या-क्या नहीं सोंच रखा था. जश्न के लिए काफी कुछ तैयारियां  भी कर ली थी किन्तु इसने फिर लड़की पैदा कर सब कबाड़ा कर दिया है. अब इसे पीटूं नहीं तो क्या इसकी आरती उतारूँ. "  वह किसी की बात सुनाने तैयार नहीं था. इस बीच वहां से एक एम्बुलेंस गुजर रही थी. भीड़ देख  ड्रायवर को इशारा हुआ और एम्बुलेंस भी वहां रुक गई. माज़

कैसा सिस्टम और कैसा सम्मान..?

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बाहर से देखने पर तो एक बड़ा दफ्तर लग रहा था. बाहर दफ्तर के नाम का जो बोर्ड लगा था उसमे के कुछ शब्द मिट से गए थे पर 'विकासखंड' लिखा स्पष्ट नज़र आ रहा था. वहां लोग आ रहे और जाने वाले जा रहे थे. आने और जाने वाले सब के सब चेहरे से शिक्षक लग रहे थे. सामने की टेबल में साहब बैठे थे तो अन्दर हिसाब व लेखा वाला बाबू बैठा था. एक शिक्षक जो सेवानिर्वृत्ति की कगार पे थे, का वहा प्रवेश हुआ. हिसाब बाबू से वे कहने लगे-" क्या बात है, मेरा एरियर्स क्यों नहीं दे रहे हो..... पार्ट फ़ाइनल का आवेदन भी लटका है....रीयेम्बर्स का कोई हिसाब ही नहीं है. ........अग्रिम की अर्जी भी लटकी हुई है." हिसाब बाबू कहने लगा- " ज्यादा चिल्लाओ मत, हमें भी नीचे से ऊपर तक बांटना पड़ता है, तुम्हे क्या , आ गए चिल्लाने....खड़कू बोला था, उसका क्या...? पहले खड़कू फिर बात आगे बढ़ेगी. जमता है तो देखा लो." बेचारा राष्ट्र निर्माता कहलाने वाला शिक्षक अपना सा मुंह लिए उस दफ्तर से बेआबरू यह कहते निकल गया कि आज शिक्षक दिवस है और जिला स्तरीय समारोह में जिन शिक्षकों का सम्मान होना है, उनमे एक नाम उनका खुद का है

' भ्रष्टाचार ' का पौधा

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दफ्तर पहुचने में आज उसे देर हो गई थी. उसके हाथ में एक पौधा (जिसकी डाली तोड़ने पर दूध निकालता है ) था. दरअसल साहब की मांग पर ही वह पौधा लाने चला गया था. जैसे ही वह पहुंचा, साहब भड़क गए. ये आने का समय है..., मै कब  से आ कर बैठा हूँ और तुम अभी आ रहे हो..? हाथ में पौधा देख उनका चिल्लाना बंद हुआ. पौधे का मिटटी वाला हिस्सा गीली चिंदी में लपेट देने के निर्देश के साथ ही तत्काल उसका परिपालन भी हो गया. अब,सब अपने-अपने काम में लग गए. दफ्तर का काम-काज ठीक से शुरू भी नहीं हो पाया था कि एक फरियादी आ धमका. सीधे साहब के पास जाकर उसी बाबू पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने लगा जिसने थोड़ी देर पहले साहब के लिए पौधा लेकर आया था. फरियादी चिल्लाने लगा " आप लोगों को काम के बदले सरकार तनख्वाह देती है, फिर कोई  काम के कैसे पैसे....? ये तो खुला भ्रष्टाचार है." साहब फरियादी की बातों को गौर से सुनने के बाद गुस्साते हुए बाबू को तलब किया. बाबू सफाई देने लगा- " साहब इसमे मेरी कोई गलती नहीं है.  बचपने में मेरे दादा जी, मुझसे बीड़ी जलवा कर मंगवाया करते थे. एक बार जलती बीडी दादा जी तक पहुँचने के पहले ही बुझने

" घुग्घी मां की जय हो.."

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एक गाँव..., गाँव की सकरी गली...,गली में करीब चार कमरों का कवेलूदार मकान. बीच का बड़ा कमरा सजा हुआ  था. देवी-देवताओं की तस्वीर के साथ ही नीबू- नारियल का एक तरह से भंडार था वह कमरा. पूजा स्थल से लगाकर एक ऊँची गद्दी लगी थी. उस गद्दी पर बड़ी-बड़ी आखों वाली एक ऐसी महिला बैठी थी जिसके बाल ऐंठनदार थे. भरा हुआ शरीर, ललाट में लाल मोटा और लम्बा तिलक, झक सफ़ेद साड़ी (बाबाओ के बाप के बाप की मां कहलाने वाली मुंबई की ' राधे मां ' की तरह दुल्हन का लिबास नहीं ) उसे और भी भयानक रूप देने अपने आप में पर्याप्त थी. दो सेवक उनकी सेवा में झूल रहे थे. लोग उसे पूरी श्रद्धा से ' घुग्घी मां ' ( उल्लू के सामान बड़ी-बड़ी आंखों के कारण )बुलाते हैं. लोगों का आना-जाना प्राय: लगा रहता है. बदहवास सी एक लड़की को उनके घर के लोग ले आये थे. पता नहीं उस लड़की को क्या तकलीफ थी कि बस बडबड करने लगी थी. सभी ने पहले ' घुग्घी मां ' के चरण छुए फिर देवी-देवताओं की तस्वीर सहित नीबू-नारियल के आगे मत्था टेके. सब के साथ मैने भी वहां अपना शीश नवाया. ऊपर से नीचे तक एक भरपूर नजर मारकर  ' घुग्घी मां ' लड़क

'सत्ता' और 'सेना' की संस्कृति

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बड़ी खुरदरी खादी की कमीज और खादी का ही पैजामा पहनता है वो. कम से कम दो दिन तो कपड़ा चल ही जाता है लेकिन बीते दो दिनों में उसे कई बार अपने कपडे बदलने पड़ गए.छींक आई तो कपड़ा ख़राब...खांसी आई तो कपड़ा ख़राब. और तो और डकार आने पर भी वही हाल.  रामगुलाम काफी परेशान था. बार-बार दस्त और भूख न लगने की उसे शिकायत थी. घर वालों की सलाह पर उसने एक क्लीनिक की ओर रुख किया. वहां एक आलीशान टेबल लगी थी. उसमे बहुत सारा सामान बिल्कुल व्यवस्थित रखा हुआ था. सामने की कुर्सी में बैठा शख्स अपने गले में नब्ज़ और धड़कन टटोलने वाला यंत्र (स्थेटिस्कोप ) लटका रखा था. मरीज को  देखकर लग रहा था कि उसके शरीर में खून ही नहीं है. पूरा हड्डी का ढांचा लग रहा था वो.उसकी जाँच शुरू हुई. एक तेज रौशनी वाला टार्च जलाकर डाक्टर बोला- मुँह खोलकर फीधे आफ़मान की ओर देखो. जीब दिखाओ. फ़मफ्या क्या है...? फमयबद्ध भोजन  करते हो...? फ़राब पीते हो क्या..? किफ़ी फमारोह के फमागम में तो नहीं गए थे..? रामगुलाम ने सवालों के  यथायोग्य जवाब देते हुए दस्त न होने और भूख न लगने की परेशानी बताई. जाँच-परीक्षण बाद डाक्टर ने कहा- " एक-एक गोली फुब

चूभती हंसी....!

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" बातों से लग तो पूरा संपादक रहे हो लेकिन संपादकों सी मक्कारी कहाँ से लाओगे. हाँ....हाँ..( राजेश शर्मा ) बिल्कुल यही नाम था उस मक्कार का. विज्ञापनों में कहीं कोई कमी नहीं की. जगह-जगह उसने स्कूल खोला. लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने शक्तिमान (मुकेश खन्ना ) और बालीवुड कलाकार ( गुफी पेंटल ) को खुली जीप में गली- गली घुमाया. एक लाख एकमुश्त लेकर मेरे बच्चे की बारहवीं तक शिक्षा की गारंटी दी थी. मेरे जैसे न जाने और कितने छत्तीसगढ़ियों से अरबों वसूला. एक दैनिक अखबार (नेशनल लुक ) भी निकला जो हमारे एक पूर्व संसद की तरह बड़ी तेजी से उभरा था. समाचार लिखने वाले नौकरों ( साँरी  रिपोर्टरों  ) को दोगुनी-तिगुनी मजदूरी में बड़े अखबार ग्रुप से तोड़कर लगाया. बाद में ये ' घर के रहे न घाट के ' वाली स्थिति में आ गए. ' डाल्फिन ' को तो उसने बिना पानी के सागर में तैरने छोड़ दिया और पूरी झांकी के साथ ' नॅशनल लुक ' निकालने वाला अब लुका-छिपी का खेल, खेल रहा है."  एक साँस में वह न जाने और क्या-क्या बके जा रहा था. शायद मैंने यह कहकर उसकी दुखती रग को छेड़ दिया था कि मै भी अब अखबार निक

" काम ज्यादा और कम मजदूरी "

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मई का मौसम...., आग उगलता सूरज...., हाय रे गर्मी. हर तरफ सन्नाटा पसरा था. गर्मी और लू के थपेड़ों ने दिन में बाहर निकलने ख़बरदार कर रखा था फिर भी मुझे आज इमरजेंसी में निकलना पड़ गया.यद्यपि आसमान में बादल छाये हुए थे तथापि उमस बढ गई थी. कभी धूप तो कभी छांव की स्थिति थी. इसका कारण सिर्फ और सिर्फ यह  था कि नवतपा के बाद भी बीती शाम घने बादल छाये थे और रात बूंदाबांदी हुई थी. आप  समझ सकते  हैं  कि इससे तापमापी का पारा जरुर गिर गया होगा पर उमस की परेशानी बरक़रार थी. मै जिनसे  मिलने गया था, वो तो नहीं मिला पर उसी मोहल्ले में लुंगी- बनियान पहने एक शख्स अपनी देहरी पर खड़े जरुर मिला गया. हाँथ का इशारा हुआ और मेरा दाहिना पैर बाइक का ब्रेक दबाने में व्यस्त हो गया. जब गाड़ी रुकी तो मैंने मुंह से लेकर कान और नाक तक लपेटा हुआ पंछा हटाया. आँखों पर पड़े काले शीशे का ऐनक निकाला. मेरा चेहरा देख लुंगी-बनियानधारी ने मुझे गले लगा लिया. वो मेरा सहपाठी निकाला. जब पढ़ते थे तो खूब शरारत किया करते थे, नगर निगम और राजीव फैन्स क्लब से बल्ब चुराकर बेचना और मिलने वाले पैसे से गुटखा-पान की तलब पूरी करना अपनी दिनचर्या में श

मै क्यों बताऊँ ?

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शहर के मध्य एक चौक है. लोग इसे भदौरिया चौक के नाम से जानते है. इसी चौक के बाजू में एक चाय का होटल है. चाय की तलब लगी. मै भी उस होटल तक पहुँच गया. वैसे यहाँ असामान्य व्यक्ति ज्यादा दिखते  हैं. मैने होटल वाले से चाय मांगी. चाय मुझे मिल पाती, इसके पहले उस व्यक्ति पर मेरी नज़र पड़ी जो हाथ में अखबार लिए, उसमे छपे समाचारों को जोर-जोर से पढ़कर लोगों को सुना रहा था. मैने उससे पूछा-" कौन सा अखबार है?" उसने चेहरा घुमाकर आँखें दूसरी ओर कर ली.( जैसे उसके अपने काम से शायद खलल पड़ी हो) उनकी ओर से कोई जवाब तो नहीं आया पर वो जारी रहा. उसमे छपी एक खबर को वह चटखारे ले-लेकर लोगों को बता रहा था. मैने भी सुनी.  खबर थी-"...और जीत गई जिंदगी." खबर का सार यह था कि एक युवक ने अपने घर के कमरे में लगे पंखे के सहारे फंसी लगाकर आत्महत्या का प्रयास किया. जैसे ही वह उसमे झूलने की कोशिश की, रस्सी टूट गई और मौत ने उसे धोखा दे दिया. इस तरह से जिंदगी जीत गई और मौत को शिकस्त मिली." इस बीच मेरी चाय भी आ गई और मै चुस्कियां लेने लगा. वो अब मेरी ओर मुखातिब होते हुए प्रतिप्रश्न किया-" हाँ भई

'शाहरुख' के 'दर्द' का एहसास

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दोस्तों  की जिद्द पर मै  भी चार पहिया की एक सीट में समा गया. कार सीधे राजधानी की ओर फर्राटे भरने लगी. शिवनाथ पुल पार करें और पुलगांव के पहले ठाकुर ठेला में न रुकें, ऐसा संभव नहीं. चाय-नाश्ते के बाद आगे निकले तो कार सीधे रायपुर रिंगरोड होकर 'मेंगनेटो' में रुकी. हम कार समेत मॉल के आधारतल में पहुँच गए क्योकि पार्किंग व्यवस्था वहीँ थी. वहां से उत्तोलक (लिफ्ट) माध्यम से एक, दो करके तीसरे माले पर पहुंचे. एक गार्ड वहां हम सब की जेबें टटोलने लगा. बड़ा अटपटा लगा. हम सब एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे. गार्ड ने बड़े अदब से 'सिक्युरिटी रीज़न बौस' कह कर अपना काम कर लिया. हम वहां रनिंग लेडर (चलने वाली आटोमेटिक सीढ़ी) से चढ़ते-उतरते घूमते रहे. 'सुई' से 'सब्बल'  और 'नमक' से 'मुरब्बा' तक की दुकान वहां सजी थी. दोस्तों की इच्छा अब वहां आलीशान टाकीज में फिल्म देखने की हुई. साथ थे, इसलिए न चाहते हुए भी घुसना पड़ा.टिकट लेकर अन्दर जा ही रहे थे कि सामने एक सिक्युरिटी फ्रेम दिखा. उसमे से होकर गुज़र ही रहा था कि फिर एक बार मेरी जेब टटोली जाने लगी. इस बार

व्यवस्था है भाई, चलने दो........

कहते हैं, कहावतें सागर में गागर भरने जैसा कार्य करती हैं. वाक्य को सुन्दर और महत्वपूर्ण बना देती हैं बशर्ते कि सही कहावत सही समय पर इस्तेमाल की जाये. आज मैं अपने ज्ञान भंडार को टटोलते हुए एक पुरानी कहावत " मच क्राई एंड लिटिल वुल " यानि ऊँची दुकान , फीके पकवान " पर जा अटका. वैसे इस कहावत का इस्तेमाल तब किया जाता है जब जहां से जैसी अपेक्षा होती है वहां से उन अपेक्षाओं की पूर्ति में कमी रह जाती है. किन्तु सच मानिये कि सरकारी दुकानदारी के सम्बन्ध में यह कहावत फेल है. बाज़ार में तेजी-मंदी का दौर चलता होगा पर सरकारी दुकानदारी हमेशा गर्म रहती है. खाने-खिलाने की परंपरा है. जितनी ऊँची दुकान उतने ही मीठे पकवान खिलाने पड़ते है. कुछ को खाने में तो कुछ लोगों को खिलाने में मज़ा आता है. खिलाने वाले अपने सामर्थ्य के अनुसार " खजानी " ( मानव मंदिर वाला नमकीन नहीं ) लेकर चलते है. कई बार तो सरकारी दुकान अचानक चलित हो जाती है और दुकानदार खुद चलकर खाने आ जाता है. यह खिलाने वाले की कूबत पर निर्भर करता है. खाने वालों का छोटा-बड़ा मुंह हमेशा खुला रहता है. व्यवस्था है भाई, क्या करोगे

टूट गया ' मधुमक्खियों ' का घरौंदा ' ततैयों ' की ईमारतें खड़ी

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आसमान में बदल छाये थे,  इसलिए आज धूप भी देर से निकली. हवाओं का प्रवाह गुदगुदी ठंडकता को आमंत्रित कर रहा था. मोहरा रोड में जहाँ पुलिया बनाई जा रही वहां लोगों की भीड़ देख सहसा मै भी रुक गया. दूर से ऐसा लग रहा था जैसे कोई राहगीर फिर किसी वाहन चालक की बेपरवाही का शिकार हो गया होगा. दूरियां समाप्त होते ही कानों में " शहेद लो शहेद " की आवाज़ सुनाई देने लगी. लोग जिसे घेरकर खड़े थे, वो ही बीच में बैठा चिल्लाते भी जा रहा था. उसके पास बिसलरी की खाली बोतलों का ज़खीरा था.  जर्मन के एक बड़े डिब्बे में मधुमक्खियों का छाता सहित ' मधुरस ' भरा था. उसी ' मधुरस ' में दर्जनों मक्खियाँ जहाँ मरी पड़ी थी वहीँ सजीव मक्खियाँ आस-पास मंडराते भी जा रही थी. ढाई सौ रुपये लीटर में वह लोगों को ' मधुरस ' दिए जा रहा था. साथ में मरी मक्खियाँ लोग मुफ्त में पा रहे थे. भीड़ में से सवालिया आवाज़ आई - " कहाँ के रहने वाले हो ? " ज़वाब आया- "झारखण्ड के है."  फिर सवाल हुआ- " मधुरस से मक्खियाँ तो अलग कर लेते.? " वो कहने लगा- " बाबूजी,  यही तो मधुरस के प्यो

लाल सांड निकला दस हजारी..

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बिना दुन्दुभी बजे आज सुबह दो सांड में जंग छिड़ गई. इस बीच कोई गाय दूर-दूर तक कहीं नज़र नहीं आ रही थी किन्तु ये सांड  पता नहीं किस बात से  एक दूसरे पर गुस्सा करते हुए अचानक भिड गए थे. ज़गह ऐसी थी कि दोनों लड़ाई छोड़ भाग नहीं सकते थे इसलिये घेरे में ही रहकर लड़ना दोनों की मज़बूरी हो गई थी. सैकड़ों की संख्या में सोमवार २३ जनवरी की सुबह नौ बजे से नगर  के जय स्तम्भ चौक में करीब दो घंटे तक लोगों ने इन सांडों  की लड़ाई का भरपूर आनन्द उठाया. इस लड़ाई में एक अवसर ऐसा भी आया कि इनमें से लाल वाला सांड उछलकर पार्किंग के घेरे का दायरा लांघने का प्रयास भी किया किन्तु तमाशबीनों ने सांड के प्रयास को असफल बना दिया. इसी लाल सांड पर एक सेठ मित्र ने अगले के साथ दस हज़ार रुपये का दांव लगा दिया था. लड़ते-लड़ते ज़ब लाल सांड एक बार भागने लगा था तो दांव लगाने वाले की घिग्घी बंद होने लगी थी.  भोलेनाथ ने अंतत:  उसका साथ दिया,  कुछ देर की लड़ाई और चली..फिर अब की बार लाल वाला नहीं बल्कि चितकबरा सांड उलटे पांव भाग खड़ा हुआ. इस तरह से लाल वाला सांड दस हजारी निकला. दांव लगाने वाला तो दस हज़ार पा गया पर सांडों की लड़ाई

यहाँ भी " चूहे-बिल्ली " का खेल ...?

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शनिवार 7 जनवरी को मुझे भी सिटी हास्पिटल जाना पढ़ गया. शाम का समय था. शाम इसलिए कि डाक्टर साहब राजनंदगांव के मरीजों को शाम-रात को ही देखते है. वहां  काउंटर में दो से तीन कर्मी बैठे थे. गाने वाला एक चेनल टीवी पर चल रहा था. डाक्टर के आगमन के इंतजार में और भी ढेरों लोग बैठे थे. एक मोटा आदमी वहां रखी क्वाइन बॉक्स वाली मशीन में सिक्के डाल-डाल कर अपना वज़न आजमा रहा था. एक ही व्यक्ति का तकरीबन कुछ समयांतराल में अलग-अलग वज़न का टोकन निकलने से वह परेशान सा हो गया था. पहली बार 95  किलो...दूसरी बार के प्रयास में तीन किलो वज़न घट गया. तीसरी बार तो हद ही हो गई. एक किलो और घट गया. इस तरह  से तीन सिक्के हज़म करने के बाद उस मशीन ने घटतेक्रम में वज़न बताया. जब उस मोटे आदमी ने वहां बैठे और लोगों को मशीन से क्रमवार निकले वज़न के आंकड़ों का परिणाम बताया तो सब खिलखिलाकर हंस पड़े. वज़न घटाने हजारों रुपये माह में फूंक देने वालों की खुशफहमी के लिए शायद ऐसी मशीन कारगर हो सकती है. इस ठहाकेदार वाकिये के बाद सब डाक्टर के आने की राह  देख ही रहे थे कि वेटिंग हाल में कहीं से फुदकता हुआ एक छोटा चूहा आया. बिल्ली की " गि