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" तोर गइया हरही हे दाऊ....!!! "

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" ऐ हे हे हे हे, कजरी कहां जही रे... ओ हो हो हो हो, ऐ टिकला  कहां झपाही रे... ऐ बलही तो आज नंगतेहेच भाव खावत हे...!!! "  हुरररररर्रट....ठहराले....ठाहराले.... ऐ धंवरी, पिंवरी अउ लाली ल तो आज सोंटरंजन  [ डंडे का प्रहार] परही तइसे लगत हे। आज तो पदोई [परेशान करना ] डरीन ऐ मन ह  ।   खुरमी [तुर्रादार बांस की चिल्फियों से बनी, मयूर पंख लगी बड़ी टोपी] पहिरे बरदिहा अपन लउठी ल लहरावत जात रिहिसे अउ संगे-संग अइसनेच चिल्लावत जात रिहिसे। खइरखाडहान ले बरदी के उसलत देरी नई रिहिसे के भांठा मेरन बस्ती के बड़े दाउ ह सपड़ गे। बरदिहा के जै जोहार के जवाब दे बर छोड़ उल्टा दाऊ भड़क गे। कहिथे- "कस रे बरदिहा... बने चराए कर, कल कजरी ह कोठा में ओइले नई दिखिस... का बात हे रे....???"  सकपकाए असन हो के बरदिहा ह कहिथे-"तोर गइया ह हरही हो गे हे दाऊ... लांहगर बांधे बर परही, आजे बांध दुहुं....!!!"  दाऊ ह कुछु अउ कहितिस तेकर पहिली फेर बरदिहा ह बोले लगिस- "दाऊ जी, ऐ पइंत 9-9 काठा करवाहू भई, महंगई बाढ़ गे हे, अब नई पुराए...!!!"  दाऊ फेर भड़क गे... कहिथे- "चुप रे लपरहा, 7-7 क

" पालक का पेट भरती चिडिया "

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भक्तिभाव का माहौल था। देवी भक्तिगीत की गूंज हो रही थी। नारियल,अगरबत्ती, लाल चूनरी, से लेकर देवी साजो-सामान की दुकानें कतारबद्ध सजी हुई थी। बीच-बीच में 'चइय्या...चइय्या, दो में एक फ्री.....दो में एक फ्री., देखिए जादू....पलक झपकते ही लड़की गायब, आओ-आओ...खाओ-खाओ, बनारस का पेड़ा टाइप की आवाजों से भरी भीड़ थी। " एक छोटा बच्चा नीली जिंस और काली टी शर्ट पहने मिला है, अपना नाम विपिन और पिता का नाम रामसेवक ही बता पा रहा है। इस बच्चे के माता-पिता या पहचानकर्ता पुलिस सहायता केन्द्र, नीचे मंदिर डोंगरगढ़ से संपर्क करें....!!!"  का एनाउन्स भी ध्वनि विस्तारक यंत्र के माध्यम से होता रहा। विक्रय किये जाने वाले विभिन्न पदार्थों के विज्ञापन की तेज आवाजों से भरी भीड़ का हिस्सा मै भी था। मैने भीड़ में देखा कि कुछ पुलिस वाले दो युवकों को पकड़कर पीटते हुए ले जा रहे थे। एक जवान ने बताया कि ये साले शातिर हैं और भीड़ का फायदा उठाते हुए देवी दर्शनार्थियों की जेबें टटोल रहे थे। ये नजारा देख मैं आगे बढ़ा। पीछे से आने वाली आवाज " सोंचा काम बनेगा कि नहीं...,नौकरी... ग्रहदशा  की जानकारी....यह

" ...और चेहरों पर पड़ने लगी फुहार ! "

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सुबह-सुबह चाय पीकर निकल गया था ! रास्ते मे भूख लगने लगी ! नदी पार के एक होटल में साँभर-बडा खा रहा था तभी एक बस आकर रुकी ! बस से दर्जनों लड़के - लड़कियाँ उतरे, जाहिर है जलपान उन्हें भी करना था ! जिसकी जो रुचि, सब खाने लगे ! आई बस थी तो स्कूल की पर बच्चे काँलेज के थे ! अचानक मेरी नजर खडे बाल वाले लड़के पर पड़ी, मैने जेब से झट मोबाईल निकाल क्लिक कर लिया ! मुझसे रहा नहीं गया, मैने मजाकिया लहजे मे उनसे पूछ ही लिया कि " भाई, कटिं ग कहां करवाई आपने, सेलुन वाले को पैसा नहीं देना था, पूरा बाल शुतुरमुर्ग की झांपी बना कर रख दिया है ! " इतने में वहां न सिर्फ़ ठहाके गूंजे बल्कि एक लड़की ने पानी पीते, हँसते-हँसते अटककर कइयों के चेहरे में फुहार तक लगा दी ! हँसी-ठट्ठा का क्रम यहीं नहीं थमा ! उनके साथ वालों में से एक ने कहा- " ये रात को खुले में सो गया था जी, किसी ने इसके सिर मे रसगुल्ले की चाशनी उडेल दी है ! खड़े बाल वाला शुरु में तो मुझे घूरने लगा था पर जब मैने फिर पूछा- " जेली लगाकर बाल खड़े करते हो क्या....??? " तो वो भी खलखलाये बिना नहीं रह सका !

" कैसी शर्म औार कैसी हया...!!! "

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एक बच्चा स्कूल ड्रेस पहने सड़क किनारे लोटा लिए बैठा था। कभी गाना गाता तो कभी जोर लगाता रहा। ऐसे मौके पर जो ध्वनि (टाॅस... ट्वीं... फुस्स... फास...) निकलती है, वो सब निकलते जा रही थी। अचानक वहां झाडू-फाडू वाले आ धमके और उस बच्चे को यह कह कर धमकाने लगे कि " पूरा देश यहां सफाई अभियान में जुटा है और तुम खुले में 'टाॅय...ट्वीं' कर रहो हो, तुम्हें शर्म नहीं आती।"  हो-हल्ला सुनकर जिज्ञासावश गांव का एक बुजुर्ग वहां पहुंचा। बच्चा सकपकाया हुआ वहां बैठा ही था। झाडू-फाडू वाले उस बच्चे को ऐसा धमका रहे थे जैसे उसेने दुनिया का सबसे बड़ा पाप कर दिया हो। बुजुर्ग को माजरा समझते देर न लगी। धमकी-चमकी जारी थी। बुजुर्ग से आखिर रहा नहीं गया। उसने कहा- " अरे पहाड़ पोतने वालों, अब चुप भी करो। शर्म इसे नहीं तुम्हें और दिल्ली वालों को आनी चाहिए। देश के दो लाख सरकारी स्कूलों में अब भी टाॅयलेट नहीं बन पाये हैं, रही बात सफाई की तो सफाई उसी जगह की होती है जो गंदी हो। जब तक कोई जगह    गन्दी नहीं होगी तो सफाई कहां और कैसे करोगे...!!! "  इस बीच मौका पा कर बच्चा लोटा छोड़कर भाग गया। बुजुर्

तो क्या इस बार रावण को दफनाना पड़ेगा …???"

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नौ  दिनों तक माँ शक्ति की पूजा-अर्चना के बाद अष्टमी हवन के साथ ही दशहरा मनाने लोग उत्सुक हैं! 'राम' दल रावण बनाने में जुटा है! विशालकाय रावण बनाया जा रहा है! रावण बनाने वाले 'रामों' में आज अचानक रावणप्रेम कुछ इसतरह छलकने लगा था जैसे अब-तब 'रामों' में रावणत्व जागने ही वाला हो! एक 'राम' कह रहा था-" बारिश की समाप्ति और ठण्ड की शुरुआत के इस मौसम का असर रावण को भी हो गया है! उन्हें सर्दी-खांसी की शिकायत हो गई है! वैसे भी ऐसे मौसम में ज्यादा कढ़ी खाने से नज़ला हो ही जाता है, फिर रावण भी तो कढ़ीप्रेमी रहे हैं! डाक्टर ने कोक, फेंटा, लिम्का, माज़ा, पेप्सी अचार, चटनी, इमली, संतरा, नीबू. दही आइसक्रीम जैसी चीज़ों से परहेज करने कहा है!"  दूसरा 'राम' कहाँ शांत रहने वाला था, कहने लगा-" तभी मैं सोचूं, ये हजारों  का विज्ञापन बोर्ड कैसे ख़राब हो गया, सभी नाक से एक साथ जब बहेगा तो बिन बारिश न सिर्फ बरसात होगी बल्कि बाढ़ भी आएगी!" रामदल में इस बात पर बहस छिड़ गई कि आखिर रावण को सर्दी-खांसी कैसे हो गई? इसकी वजह कोई अंदरुनी वंशानुगत एलर्जी तो कोई धूल-ध

" जब गीली जेब से निकली रुदनी ....!!! "

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पानी गिरा …, बाढ़ आई …, चार यार जुटे...., मस्ती के मूड में उछलते-कूदते नहाने के साथ ही बाढ़ का मज़ा ले रहे थे! बाढ़ में बह कर आई  मछलियां, नहाने वालों के नंगे शरीर से टकराकर शरमाती हुई भागने लगी! सभी ने नहाते-नहाते मछलियां पकड़ने की युक्ति लगाई! एक पारदर्शी कपड़े के सहारे अब ये सभी मछलियां पकड़ने में व्यस्त हो गए! देखते ही देखते इनके पास कोतरी...., बिजलू …,टेंगना …,सारंगी …, सहित एक-दो छोटी मोंगरी जैसी मछलियां संग्रहित हो गई! इस बीच कुछ और उत्साहित लोगों की भीड़ वहां बढ़ गई! पकड़ी गईं मछलियों को अब बांटने की बारी आई! यद्यपि सब के सब प्रसन्न मुद्रा में दिखाई दे रहे थे पर मछलियां पकड़ते-पकड़ते इनमे से एक की गतिविधियां शेष लोगों को संदेहास्पद लगाने लगी थी! सवालात भरी नज़रों से उसे ऐसा देख रहे थे जैसे सभी का मौन आग्रह शंका समाधान चाहता हो,  तत्काल तलाशी ली गई तो चड्डे की गीली जेब से रुदनी नामक मछलियां निकलने के साथ ही मछलियां छुपा रखने की पोल भी खुल गई, हा.... हा.... हा...., फिर क्या था, मछलियां गवांने  साथ ही उसे बंटवारे से भी बेदखल होना पड़ गया! 

हाय रे मेरे गुल्लक के 'हीरे' …??? "

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" घर में एक सामान ढूंढते- ढूंढते बरसों पुराना एक गुल्लक हाथ लग गया. बिना देरी के उसे जब नारियल की तरह फोड़ा तो  मेरे गुल्लक के 'हीरे' पांच... दस...बीस... पच्चीस, पचास और एक-दो के सिक्कों की शक्ल में मिले! चिल्लहर की भरमार हो गई! आज पूरा बाजार घूम गया, जहां भी चिल्ल्हर के रूप में भुगतान का प्रयास किया, स्वीकार करना तो छोड़ दुकानदार मुझे इस तरह घूरते रहे जैसे मैंने कोई उनकी बेटियां भगा लेने जैसा अपराध कर दिया हो! चिल्लहर के बदले बड़ी मोहब्बत से चाकलेट और चवन्नी छाप पीपरमेंट थमा देने वाले बाजार में खूब चांदी कूट रहे हैं! चिल्ल्हर के बदले कुछ भी गिफिन [ निकृष्ट ] किस्म की चीजों को थम देना वर्तमान व्यवहारिक बजारनीति बन गई है जबकि विधिकतौर पर पांच, दस, बीस जैसे सिक्केयुक्त चिल्लहर पच्चीस रुपये तक स्वीकार करने से कोई मना नहीं कर सकता! यही क़ानूनी बाध्यता है! मित्रों सरकार ने अब तक सिक्कों में सिर्फ चवन्नी यानी पच्चीस पैसे को ही घोषिततौर पर बंद किया है, इस लिहाज से शेष सिक्के प्रचलन में हैं पर व्यवहार में ये सिक्के कहाँ गायब हो गए हैं, ये सरकार और प्रशासन के समक्ष बड़ा सवाल है...???