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Showing posts from 2013

अंतहीन भूख …

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ये "भूख" बड़ी अजीब चीज़ है। मेहनत कर पसीना बहाने वालों को पेट की भूख सता रही है. झक सफ़ेद कुर्ता-पायजामा पहने लोगों को कुर्सी की भूख है. नौकरशाह नोटों की भूख से तड़फ रहा है. अशांत लोगों को मन की भूख तो किसी मनचले को तन की भूख परेशां करने लगी है। भूख का कोई अंत नहीं है. एक अदद रोटी …एक अदद मोटी ...एक अदद नोटों का बण्डल …तो एक अदद वोट की  दरकार है! झुग्गियों में भी अब पड़ने लगे हैं कदम! सीधे मुंह बात न करने वालों के मुंह से झड़ने लगी है मिश्री की डालियाँ।  सुर्खियों की सियायत नेताओं की फितरत होती है। चेहरे चमकने लगे हैं और तस्वीरें छपने लगी हैं!  न्यूज चेनल चिल्ल- पों तो अखबार अलाप भरने लगे हैं. क्या- क्या हथकंडे नहीं अपनाये जा रहे हैं! जुबान की बंदूक से बयानों की बारूद दागी जा रही है! "राम", "रहीम"  से तो "रहीम", "राम" से गले मिल रहा है यानी चुनाव है भई। 

हाजमा खराब !

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उसे बडी जोर की भूखा लगी थी ! मुझसे पूछा-" आप नाश्ता करेंगे? " सुबह से अच्छी चाय नसीब नहीं हुई थी सो कुछ खाने की इच्छा भी नहीं हो रही थी। पेंट्रीकार से उसने गरम समोसे मंगा लिया। ठीक से स्वाद भी नहीं ले पाये थे कि समोसे से निकली आलपिन ने सारा मजा किरकिरा कर दिया। वेटर तो पैसे लेकर कब का चला गया था। दोस्त के तात्कालिक गुस्से का सामना टिकट जांच रहे काले कोट वाले को करना पडा। कहने लगा-" इंसान को आलपिन खिला कर मार डालोगे क्या ? " काले कोट वाले के जवाब ने सभी ट्रेन यात्रियों को सोंचने मजबूर कर दिया ! उनका जवाब था- " लोग तो रेत, सीमेंट, ईट, गिट्टी, बोल्डर, कोयला और लोहा तक पचा जाते हैं और एक आप हैं कि एक आलपिन के लिए बवाल खडा कर रहे हैं । हाजमा आपका खराब है और दोष रेलवे को दे रहे हैं। "  

" चिकनी चुपडी चाची !

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शाम जा रही थी और बहार आ रही थी। हम दोस्तों के साथ " फुर्सत के पल " ( मेरे सहनाम के होटल का नाम है ) से चाय पी कर लौट रहे थे। अचानक मेरी नजर एक पडे हुए सिक्के पर पडी। मानवीय स्भावानुकुल जब उसे उठाया तो स िक्का नहीं " टिल्लस " निकला। मैं शर्मिन्दा और मेरे साथ वालों की हंसी का ठिकाना नहीं था। मै दोस्तों के उपहास का दंश झेल ही रहा था कि ऐसा लगा जैसे मुझसे कोई कुछ कहना चाह रहा है। नजरें दौडाई तो मेरे साथ वाले आगे निकल चुके थे और मैं अनजानी आवाज सुन वहीं ठिठक गया। दरअसल मुझसे यह कहा जा रहा था - " क्या देख रहा है रे ? नगरों में लोग जो मेरा रुप देखते हैं, वह अत्यंत आकर्षक और साफ सुथरा है। मेरे शरीर पर कहीं मिट्टी दिखाई नहीं देगी। चिकनी-चुपडी चाची के समान मै भी सुन्दर और आकर्षक लगती हूं। मुझ पर चलने में आनंद आता है। कारें, बसें और अन्य दूसरे वाहन मुझ पर तेज गति से दौडते रहते हैं। मै भले ही निर्जीव समझी जाती हूं, पर मुझमें चेतना है। मै तो गांव को गांव से, नगर से जोडने का काम करती हूं।मेरा काम एक देश को दूसरे देश से मिलाना है। परस्पर जुडाव से मै भाईचारे का भाव पैदा क

"उई मां...उई मां ...ये क्या हो गया...!!!?

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" बडे अच्छे लगते हैं.... ये धरती ....ये नदिया....और त् उ उ उ उ उ उ म !!!"(मेरे मोबाईल का रिंगटोन) जैसे ही बजने लगा, कुछ देर इस कर्णप्रिय गाने  को सुनने के बाद- " हां, बोल इकबाल ? (यद्यपि मैने डिस्प्ले देख लिया था तथापि बिना हाय...हैलो की औपचारिकता के सीधी बात की) प्रतिउत्तर मिला- " गंगा ( होटल गंगा )में आइए, चाय पीते हैं। " मैं जब पहुंचा तो टेबिल पर चाय आ चुकी थी। हम चुस्कियां लेने लगे। अचानक " उई मां....उई मां " की आवाज के साथ एक युवती कुर्सी से लगभग उछल पडी थी। उसके चेहरे का हाव-भाव बता रहा था कि उसके शरीर में भयवश सिहरन सी दौड गई थी। उसे सामान्य होने में तकरीबन पंद्रह मिनट लग गए। उसकी इस बदहवासी का कारण जब सामने आया तो रेस्तरां में ठहाके गूंजने लगे। आखिर ऐसा क्या हुआ होगा ? समझ सकते हैं । यह जरुर बताएं कि आप मे से ऐसे कौन-कौन हैं जिन्हें " काकरोच " से डर लगता है...!!!!????

" उडान " पर बंदिश..!!!

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" रुखमणि " आज बेहद खुश थी। जब वह पीहर छोड पिया के संग आई थी तो खूब लजाती थी पर अब बात दूसरी है। आज उसके चेहरे में आत्मविश्वास की झलक स्पष्ट दिख रही थी। दरअसल उसका पति " प्रेमलाल " क्षर-फुक्कन किस्म का है। जेब में रुपए हैं तो वह किसी शहंशाह से कम नहीं। आंखें तरेरती हुई आज " रुखमणि " ने पगार के सारे पैसे अपने कब्जे में कर लिए थे। कमर तक लंबे बालों को झटकती हुई कहने लगी- " घर मुझे चलाना पडता है। सब्ज ी-भाजी से लेकर अन्य जरुरतें आखिर कैसे पूरी होगी ? फिर तो सरकार ने भी अब महिलाओं को घर का मुखिया बना दिया है। देखे नहीं क्या, राशन कार्ड मे बतौर मुखिया मेरा नाम और मेरी फोटो लग गई है।" अमर, विष्णु, रामगोपाल, सरजू और मनबोधी भी गुलछर्रे उडाने में कोई कमी नहीं करते। रुखमणि की टेक्निक आबा चम्पा, कमला, गुलाबो, प्रेमबती और अनसुईया भी अपनानें लगी हैं। इन पतियों पर तो मानो शामत ही आ गई ! " चोंगी-माखुर " के चंद खर्चे थमा कर इन पत्नियों ने अपने पतियों के " छकल-बकल " की प्रवृति पर बंदिश लगाने की ठान ली है। लोगबाग के तानों की चिंता छोड हर शाम

घोघा और तिनके का स्पर्श ...!!!

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मैने घोंघे को इतने करीब से पहले कभी और नहीं देखा था। आज शिवनाथ तट में रु-ब-रु हुआ। वह अपना घर अपने साथ लेकर चल रहा था। शाम के समय वह तट पर जल से निकल कर थल की ओर आने की कोशिश कर रहा था। इसके सिर का भाग काफी संकुचनशील लग रहा था। इसे देख मुझे मस्ती सूझी और मैने एक तिनका लिया। सिर के मांसल भाग में तिनके का स्पर्श होते ही उसने अपने आप को अपनी कवचनुमा कोठरी में सिकोड लिया। कुछ देर बाद अंदर का जीव फिर झांकने लगा था। वह रेंग-रेंग कर फिर निकलता और तिनके के स्पर्श से फिर अपने आप को सिकोडते जा रहा था। मुझे मजा आ रहा था और इसी मजे के फेर में मेरे हाथ के तिनके का कमाल जारी था। इसके सिर मे मुंह और दो आंखें थी। बार-बार तिनके के स्पर्श से घोंघा शायद परेशान हो गया था अतः अब वह झांकते ही स्वयं को सुरक्षित करते हुए अपने आप को कवच में सिकोडने लगा था। अब की बार बहुत देर तक वह कवच से झांका भी नहीं और मेरे हाथ का तिनका स्पर्श को फडफडाता रहा! मैने भी सोंचा " शायद, घोंघा ग्रीष्म निद्रा लीन हो गया हो ! " मैने भी वहां से रवानगी डाली।

अरे कौन किसे चिढ़ा रहा है भाई?

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'अरे जालिमों, क्या मार ही डालोगे ? भरी गर्मी में कोई तो ठंडे पानी से नहलाओ।Ó गोल-गप्पेदार अपनी रक्तिम रूप को लेकर हमेशा इठलाने वाला टमाटर आज दोपहरी में यही कहने लगा था। अपने ही पसीने की घूंट से अपना कंठ गीला  करने मजबूर लौकी 'रामदेवÓ की कृपा से अपने बढ़े दाम पर गर्व करने से नहीं चूक रही थी। अपने गोरे-गोरे गाल की दुहाई देती सफेद बरबट्टी काली बरबट्टी से कह रही थी-'अरी कलमुंही, पहले अपनी शकल तो आइने में देख ले फिर मुझसे मुंह लड़ाना।Ó भिंडी जहां अपनी हरीतिमा पर इतराने लगी थी तो अदरक अपनी मूछों पर ताव देने से नहीं चूक रहा था। पत्तियों की जगह अब सूखी फलदार धनिया गुर्रा रही थी। एक कोने में पस्त होकर परवल आराम की मुद्रा में जरूर दिख रहा था पर जैसे ही वहां से एक गाय गुजरने लगी, कई दिनों से बिक नहीं पाने से खफा परवल लपककर उसके मुंह में समाते हुए बेचने वाले को चिढ़ाने लगा था। अब कमरतोड़ मंहगाई के बीच कौन किसको चिढ़ा रहा है, यह समझने की बात है मित्रों।