दर्द का एहसास और आंसू की परख


उसकी रोजी-रोटी  का जरिया लकड़ी काटना था. उसी से बुधारू के परिवार का पेट पलता था. दिनभर पसीना बहते लकड़ी काटने से जो रुपये मिलते थे, उससे वह अपने परिवार की जरूरतें पूरी किया करता था. इस पुश्तैनी काम का सिलसिला आगामी पीढ़ी में भी  चलता रहे, इसी प्रत्याशा से बुधारू जब भी लकड़ी काटने जाता, अपने बेटे रामपाल को भी वह साथ ले जाता. अमूमन हर दिन वह अपने बेटे को अपने सामान लकड़ी काटने प्रेरित किया करता था पर रामपाल ने कभी उत्साह ही नहीं दिखाया. जब-जब भी वह अपने पिता को लकड़ियाँ काटते देखता था तब-तब वह कटी लकड़ियों के दर्द का  एहसास अपने जेहन में किया करता था.  एक दिन बुधारू ने उसके हाथ में जबरिया फावड़ा थमाते हुए लकड़ियाँ काटने उसे मजबूर किया. अब दोनों लकड़ी काटने लगे. कुछ देर बाद फावड़े की मार रामपाल के पैर में लगी और वह लहूलुहान हो गया. अपने बच्चे की यह दशा देख बुधारू बिलख पड़ा. रामपाल कहने लगा- "रोने-गाने की जरुरत नहीं है. ऐसा मैने जान बूझकर किया है. मैने स्वयं अपने पैर में फावड़ा  मारा है". बुघारू कहने लगा-" बेटे तुमने ऐसा क्यों किया..? " रामपाल का जवाब था- " मुझे हल्की मार लगाने से आप बिलख रहे है....जरा सोचिये...पेड़ जब काटा जाता है....लकड़ियों पर इससे भी कई गुणा ज्यादा मार लगती है तो उन्हें कितना दर्द होता होगा. जितना दर्द आपको मेरी स्थिति देख हो रही है तकरीबन उसी दर्द का  एहसास पेड़-पौधे भी करते है." बच्चे का जवाब सुनकर बुधारू भी द्रवित हो गया. उसे पेड़-पौधों के दर्द का एहसास और आंसू की परख हो गई. बुधारू ने उसी वक्त इस पुश्तैनी काम को अलविदा कह दिया. अब वह लकड़ियाँ नहीं काटता. उसने परचून की दुकान खोल ली है. 

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