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Showing posts from February, 2014

" कलियों और भौंरों के बीच गुफ्त-गू क्यों नही ...???

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बाग-बगीचों में फूल अब भी खिलते हैं , खेत-खलिहानों में फसलें अब भी लहलहाती है, चिड़ियों का चहकना भी कम नहीं हुआ फिर भी न जाने क्यों कुछ कमी महसूस होती है! प्रकृत ि अब लोगों को हँसमुख रहने उद्यत क्यों नही करती ! पुराने रसिकजन बताते हैं कि पहले फूलों को मुस्कुराने कहना भी नहीं पड़ता था और वो खिलखिला पड़ते थे, कोयल की कुहू-कुहू की आवाज कर्णप्रिय लगती थी, बसन्त की दस्तक तब भी होती थी और अपने आगमन का पूर्वाभास भी करवा जाता था, अब तो कब आकर कब निकल लिये पता ही नहीं चल पाता । हरियाली निगलने में गलियों की क्रांक्रीटिंग ने कोई कमी नहीं की है। नाराज फूल मुस्कुराना पसंद नहीं करते । आसमान में बादल जरुर छाते हैं पर मन के आसमान में उदासी बादल क्यों है भाई ? अंतरतम का पपीहा जरुर पुकारता है " पी कहां है....पी कहां है.? पर " तूती की आवाज " हमेशा की तरह नक्कारखाने के आगे दब कर रह जाती है। जीवन की आपाधापी में शायद हम शिकायत, निंदा , धनलोलुपता और विरोध के दलदल में फंसकर रह गये हैं ! " कलियों और भौरों " के बीच अब गुफ्त-गू क्यों नहीं होती...??? आज का बसंत यह बताने मे भी नाकाम लगत

" भई, आखिर ये क्या बात हुई ....??? "

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मै नई टी शर्ट और नई पैंट पहनकर घूमने निकला! सुबह से शाम हो गई पर किसी ने भी " यू आर लुकिंग स्मार्ट " जैसी बात नहीं की ! सात बजते-बजते बतौर इंसानी फितरत मैंने एक से पूछ ही लिया " ये शर्ट-पैंट कैसी लग रही है? " जाहिर है, जवाब सकारात्मक ही मिला! जबरदस्ती के इस सुकून का अहसास जरुर किया, क्षणिक आनंदित रहा पर अगले ही पल मैं सोचने लगा- भई, ये क्या बात हुई कि किसी ने कह दिया ' अच्छे लग रहे हो ' तो मै खुश हो गया और कोई कह दिया ' तुम्हारी ड्रेस ठीक नहीं है ' तो मैं दुखी हो जाऊं...! क्यों भई...? मैंने तो ठान लिया है, किसी से अब इस तरह तो पूछना ही नहीं है ! हाँ, कोई अपने से पूछ ले तो बात अलग है! कुल जमा सब महसूस करने की बात है मित्रों! मैं तो अब फटी चप्पल और पाजामे में भी ठीक उसी तरह महसूस करने लगा हूँ जिस तरह नए कपडे पहनकर होता है! अब देखता हूँ " हर दिन होली और हर दिन दिवाली " कैसे नहीं होती है! मेरे लिए तो अब हर दिन उत्सव है! मित्रों, क्या आप भी मनाना चाहते हैं ऐसा उत्सव ???