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Showing posts from March, 2014

" अब की होली टन... टन... टन...!!! "

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मुंह लाल... आंखें गुलाबी... और हांथ में पिचकारी लिए जो बच्चे अभी धमाचौकड़ी मचा रहे हैं, ये वो ही बच्चे हैं जो एक दिन पूर्व संध्या ठीक होलिका दहन के वक्त " होली के होकड़ी " चिल्ला रहे थे!मै जब घर से निकला तो मेरे स्वयं के आभामण्डल में कुदरती रंगों की बहार थी. मेरे मन में होली के कृत्रिम रंगों का इंद्रधनुष समाया हुआ था. मै चौराहे पर पहुँच भी नहीं पाया था कि दो हाथ पीछे से आकर मेरे चेहरे को मलने लगे थे. चंद समय में ही मुझे एहसास  हो गया कि किसी ने मेरे चेहरे को मोबिल पेंट से पोत दिया है. कोई गोबर खेल रहा था तो किसी को नाली का कीचड़युक्त पानी प्यारा लग रहा था. सभी अपने में मस्त नज़र आ रहे थे. कभी सुनते थे कि भगवान श्री कृष्ण की बंशी होली में बजती थी तो उसकी धुन में राधा बावली हो जाती थी. सात्विक ठिठोली होती थी. " कृष्ण " होली में " राधा " को रंगते हुए अब भी दिखता है. नाम " बृज की होली " भले ही रख दिया जाता है पर अमीर का अहम् और गरीब की संकीर्णता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है. टूटे दिल जुड़ने की बजाय चकनाचूर हो जाते हैं. " रंग में भंग" पड़ने से सूख

...और बिखर गई मीठी मुस्कान ...!!!

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कंधे में स्कूल बैग लटकाये, हाथ में चाकलेट बार का डिब्बा लिये नई नीली जिंस और टोपीदार नीली टी-शर्ट में मास्टर आर्यन शर्मा को देख उनके सहपाठी समझ गये कि आज उनके लिये दिन विशेष है। सब के चेहरे में मीठी मुस्कान बिखरते देर नही लगी। कक्षा-कक्ष में प्रवेश के साथ ही " हैप्पी बर्थ डे टू यू...हैप्पी बर्थ डे टू डियर आर्यन...!!! " की आवाज से वातावरण गूंज उठा । सबने खुशियां बांटी, बाबा आर्यन ने बेहद मीठी अनुभूति के साथ सबको धन्यवाद दिय ा । स्कूल से लौटकर आर्यन ने बताया कि उनके स्कूल " नीरज पैरेन्ट्स प्राइड " में जिस बच्चे का जिस दिन जन्म दिन होता है, उसे उस परिप्रेक्ष्य में रंगीन वस्त्र धारन की छूट होती है और कक्षा-कक्ष मे सामूहिक खुशियाँ मनाने की परम्परा है । खुशियों का सुहावना अवसर कुछ ऐसा था जैसे सब बच्चे समवेत स्वर में कह रहे हों - " सूरज रौशनी लेकर आया, और चिडियों ने गाना गाया फूलों ने हँसकर बोला बधाई हो, तुम्हारा जन्मदिन आया...!!! 

" कोई लाग-लपेट नहीं, एकदम हू-ब-हू ...! "

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गाड़ी चल पड़ी थी, मैं दौड़ के चढ़ा, मेरा चढ़ना तो उसका उतरना हुआ। चढ़ते हुए मैने गुटखे की पीक मारी, फिर क्या था, उतरने वाले की पेन्ट और शर्ट छींटदार हो गई। उसका गुस्सा फूटना स्वाभाविक था, व ो गालियों की बौछार करने लगा, बस की रफ्तार बढ़ चुकी थी जो मेरे लिये सुकूंनदायक थी। उसकी गालियों की आवाज बस के हार्न की आवाज के आगे दब के रह गई । अपनी गलती के अहसास के साथ ही परिस्थितिजन्य बेहद हसी भी आ रही थी। अब बस अपने गन्तव्य के लिये पूरी रफ्तार से चलने लगी। भीड़ भरी बस की अंतिम सीट से अत्यन्त गम्भीर लहजे में "देख तो दाई, ये रोगहा ह साती-मुडी ल सीथे" की शिकायती आवाज आयी । सब के कान ( खरगोश के कान की मानिन्द ) खड़े हो गये । मनचले (हरकती) की पिटाई भी हुई, कइयों ने " बहती गंगा " में अपना हाथ भी साफ किया । सफर का माहौल शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा था । मैने बस के ड्राइवर साहब से कहा- " भइया, संगीत तो शुरु कर दीजिये...? " बस में बैठे कुछ और लोगों ने भी यही गुजारिश की। अब संगीत शुरु हो चुका था पर यह क्या ...? " ओडी विलयाडु पापा " टाइप का गाना बजने लगा था ।