" कोई लाग-लपेट नहीं, एकदम हू-ब-हू ...! "

गाड़ी चल पड़ी थी, मैं दौड़ के चढ़ा, मेरा चढ़ना तो उसका उतरना हुआ। चढ़ते हुए मैने गुटखे की पीक मारी, फिर क्या था, उतरने वाले की पेन्ट और शर्ट छींटदार हो गई। उसका गुस्सा फूटना स्वाभाविक था, वो गालियों की बौछार करने लगा, बस की रफ्तार बढ़ चुकी थी जो मेरे लिये सुकूंनदायक थी। उसकी गालियों की आवाज बस के हार्न की आवाज के आगे दब के रह गई । अपनी गलती के अहसास के साथ ही परिस्थितिजन्य बेहद हसी भी आ रही थी। अब बस अपने गन्तव्य के लिये पूरी रफ्तार से चलने लगी। भीड़ भरी बस की अंतिम सीट से अत्यन्त गम्भीर लहजे में "देख तो दाई, ये रोगहा ह साती-मुडी ल सीथे" की शिकायती आवाज आयी । सब के कान ( खरगोश के कान की मानिन्द ) खड़े हो गये । मनचले (हरकती) की पिटाई भी हुई, कइयों ने " बहती गंगा " में अपना हाथ भी साफ किया । सफर का माहौल शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा था । मैने बस के ड्राइवर साहब से कहा- " भइया, संगीत तो शुरु कर दीजिये...? " बस में बैठे कुछ और लोगों ने भी यही गुजारिश की। अब संगीत शुरु हो चुका था पर यह क्या ...? " ओडी विलयाडु पापा " टाइप का गाना बजने लगा था । मैने कहा- " भइया, कोई पुराने और मधुर संगीत सुनाओ...? " उन्होंने निवेदन स्वीकार किया और अगले ही पल हमारे कानों तक " बिंदिया चमकेगी, चूड़ी खनकेगी...! झूठ बोले, कौआ काटे...! ये रेशमी जुल्फें, ये शरबती आँखें ...! ये गोटेदार लहंगा...! " जैसे गीत के बोल पूरी क्रमबद्धता के साथ गूंजने लगे । मित्रों , बस की इस यादगार सफर से लौटकर मैं आँन लाइन वही संगीत, वही गाने, वही गाने के बोल सुनने का प्रयास किया पर तनिक भी आनन्दानुभूति नही हुई। कोई बतायेगा...? आखिर ऐसा क्यूं भई...?

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