" हुदहुद को "कठफोड़वा" समझने की भूल ...! "
दोपहर का समय ढल चुका था, सूर्य की किरणें तिरछी पड़ने लगी थी! मुझे हल्का बुखार लग रहा था, इसका अहसास मुझे घर से निकलने के पहले ही प्याज़ की बदली गंध ने करवा दिया था! सुकून पाने की फ़िराक में मै हरियाली के बीच पहुँच गया! गुनगुनी हवाएं चल रही थी, चिड़ियों का चहचहाना भी जारी था! हल्की गर्माहट के साथ ही नमीयुक्त जगहों पर राहतभरी ठंडकता महसूस होने लगी थी! अचानक मेरे कानों में ठक... ठक... ठक.... की आवाज आने लगी! मैं आवाज वाली आसमानी दिशा की ओर काफी देर तक गौर किया! मशक्कत बाद मैंने देखा, वृक्ष की टहनियों के नीचे तने पर एक लम्बी और नुकीली चोंच वाला पक्षी बैठा है और बार-बार तने पर अपनी चोंच से वार कर रहा है, ठक... ठकठक.... ठक... की आवाज़ चोंच की चोट से आ रही थी! मै बड़ी उत्सुकता से उसे देखे जा रहा था! काले और सफ़ेद रंग के संयोजन वाला वह पक्षी था! तने की सूखी छाल छिलकर शायद वह कीड़े-मकोड़ों को खाए जा रहा था! मैंने गौर किया कि जब वह पक्षी चोंच की चोट नहीं कर रहा तो भी ठक... ठक... ठक.... की आवाज आती रही! मैने अपनी नजरें दौड़ाई, कुछ दूरी से ही एक नाटे कद और भरे बदन वाला काला सा व्यक्ति दरख्तों सहित मोटे तने की बड़ी टहनी उठाये हुद.. हुद.. हुद.. हुद.. करता जाते दिखा! समझ में आया कि ये ठक... ठकठक.... ठक... वाला काम हुदहुद का था, कठफोड़वा तो बेचारा मुफ्त में बदनाम है, दरअसल मैंने ही हुदहुद को "कठफोड़वा" समझने की भूल कर दी थी!
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन सावधानी हटी ... दुर्घटना घटी - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteशुक्रिया जी.
Deleteकभी-कभी भूल हो जाती है राजेश जी..
ReplyDelete" साकेत शर्मा जी, मानवीय स्वभाव जो है...! "
Deleteपर हमारे यहाँ इस हुदहुद को कठफोड़वा कह कर ही पुकारा जाता है :)
ReplyDelete" सुशील कुमार जोशी जी , एकदम दुरुस्त फ़रमाया आपने, हुदहुद और कठफोड़वा लगभग एक ही प्रजाति के पक्षी हैं पर मैंने " हुदहुद " शब्द यहाँ बतौर प्रतीक उपयोग किया है...!!! "
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