घोडा घांस नहीं, चना खाता है भाई
तांगे की सवारी का अपना एक अलग ही मज़ा है. आज बुधवार, 27 दिसंबर को मैने पड़ोसी
जिला मुख्यालय दुर्ग में इसका भरपूर मज़ा लिया . अरसेबाद तांगे की सवारी का मौका मिला.मैने अनुभव किया कि जैसे-जैसे तांगा आगे बड़ता जाता था, वैसे-वैसे घोड़े के गले में बंधी घंटी और घुंघरू बज़ते जाते थे. घोड़े के टापों की आवाज़ के साथ ही एक अलग ही सुरीली आवाज़ लयबद्ध तरीके से मेरे कानों तक आनें लगी थी. मै तो शौकिया तांगे की सवारी कर रहा था पर उसमे बैठे-बैठे सोंच रहा था कि एक समय था, जब इसकी सवारी पर लोग निर्भर हुआ करते थे. इसमे बैठने का अपना एक अलग ही महत्व रहता था. तांगे पर बैठना शान की सवारी समझी जाती थी. अब समय बदल गया है. साईकिल, रिक्शे आ गए. अब तो रिक्शे भी कम हो गए. उनकी जगह ऑटो रिक्शे ने ले ली है. मेरा शहर राजनांदगांव शुरू से ही तांगा विहीन रहा है. दुर्ग के स्टेशन क्षेत्र में ज़माने से तांगे का प्रचलन है. ताकियापारा का तांगेवाला मुनौव्वर कहता है कि ( घोडा, घांस नहीं, चना खाता है भाई ) घोड़े का चारा " चना " खरीदना भी अब आसान नहीं रह गया है. अब तो पहले जितना लोगों से किराया भी नहीं मिल पाता है. अत्यंत मज़बूरी में ही लोग अब तांगे में बैठना पसंद करते है. वह कहता है कि " पता नहीं लोग अब तांगे में बैठने से क्यों परहेज़ करने लगे है? " इसमें कोई संदेह नहीं कि तांगे की शाही सवारी अब धीरे-धीरे विलुप्त होती जा रही है. आगामी पीढ़ी तक शायद ' तांगा ' महज़ भूतकालीन शब्द बन जायेगा.
इस घोडे की कीमत भी पता कर लेते भाई.....
ReplyDeleteपेट्रोल की बढती कीमतों से तो सस्ता ही होगा चना....
सोच रहा हूं एक घोडा रख लूं कहीं आने जाने।
अतुल भाई , ये कला घोडा है, इसकी कीमत तो और भी ज्यादा होगी. वैसे भी घोडा तो ख़रीदा जा सकता है पर उसका जतन हर कोई नहीं कर सकता.
ReplyDeleteBahut achha....Chalte-2.....Atul....
ReplyDeleteपटनायक जी , शुक्रिया.
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