" आये बदरा कारे-कारे...!!! "

चिलचिलाती धूप थी, लू का कहर था, तेज अँधड के बाद जब मिट्टी की सौंधी खुशबू आने लगी तो पतछड में खोया बरगद प्रफुल्लित होकर आहें भरने लगा । लू के थपेडे खाकर अधमरी हो चुकी गौरइया अब सांस लेने लगी है। अब वह धूल स्नान करना छोड़ " छपक-छइया " करने में जुट गईं हैं । चीं...चीं...चीं... की आवाज फिर गूंज उठी और उसकी आँखों में हरियाली सी छा गई । अरे, बादल जो सज-संवरकर आया है और मानो कह रहा हो-" बडे अच्छे लगते हैं ... ये धरती...ये नदिया...और तुमsssss...!!! " संस्कारधानी नगरी राजनांदगाँव के मोहारा जल शोधन व संवर्धन गृह से लगाकर बहती अगाध शीतलता बिखेरने वाली शिवनाथ नदी आसमान मे छाये बादल के ठाठ-बाट को देख ऐसे लजाने लगी थी जैसे कोई नवयौवना अपने प्रियतम के सामने घूंघट सरकाते शरमाती है। लरजकर ही सही पर जैसे कह रही हो-"आये बदरा...कारे-कारे...!!!" दुल्हा सरीखे बन-ठन के पहुंचे बादल के आगे-आगे नाचती-गाती सी बयार ऐसे चलती रही जैसे किसी मधुर धुन में संगत कर रही हो। झुके पेड़-पौधे अब अपनी गर्दन उचका-उचकाकर धूल से कहने लगी थीं कि " चल भाग री करमजली, अब तेरा कौन है यहाँ...!!...