" अब की होली टन... टन... टन...!!! "

मुंह लाल... आंखें गुलाबी... और हांथ में पिचकारी लिए जो बच्चे अभी धमाचौकड़ी मचा रहे हैं, ये वो ही बच्चे हैं जो एक दिन पूर्व संध्या ठीक होलिका दहन के वक्त " होली के होकड़ी " चिल्ला रहे थे!मै जब घर से निकला तो मेरे स्वयं के आभामण्डल में कुदरती रंगों की बहार थी. मेरे मन में होली के कृत्रिम रंगों का इंद्रधनुष समाया हुआ था. मै चौराहे पर पहुँच भी नहीं पाया था कि दो हाथ पीछे से आकर मेरे चेहरे को मलने लगे थे. चंद समय में ही मुझे एहसास हो गया कि किसी ने मेरे चेहरे को मोबिल पेंट से पोत दिया है. कोई गोबर खेल रहा था तो किसी को नाली का कीचड़युक्त पानी प्यारा लग रहा था. सभी अपने में मस्त नज़र आ रहे थे. कभी सुनते थे कि भगवान श्री कृष्ण की बंशी होली में बजती थी तो उसकी धुन में राधा बावली हो जाती थी. सात्विक ठिठोली होती थी. " कृष्ण " होली में " राधा " को रंगते हुए अब भी दिखता है. नाम " बृज की होली " भले ही रख दिया जाता है पर अमीर का अहम् और गरीब की संकीर्णता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है. टूटे दिल जुड़ने की बजाय चकनाचूर हो जाते हैं. " रंग में भंग" पड़ने से सूख...