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Showing posts from June, 2012

" घुग्घी मां की जय हो.."

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एक गाँव..., गाँव की सकरी गली...,गली में करीब चार कमरों का कवेलूदार मकान. बीच का बड़ा कमरा सजा हुआ  था. देवी-देवताओं की तस्वीर के साथ ही नीबू- नारियल का एक तरह से भंडार था वह कमरा. पूजा स्थल से लगाकर एक ऊँची गद्दी लगी थी. उस गद्दी पर बड़ी-बड़ी आखों वाली एक ऐसी महिला बैठी थी जिसके बाल ऐंठनदार थे. भरा हुआ शरीर, ललाट में लाल मोटा और लम्बा तिलक, झक सफ़ेद साड़ी (बाबाओ के बाप के बाप की मां कहलाने वाली मुंबई की ' राधे मां ' की तरह दुल्हन का लिबास नहीं ) उसे और भी भयानक रूप देने अपने आप में पर्याप्त थी. दो सेवक उनकी सेवा में झूल रहे थे. लोग उसे पूरी श्रद्धा से ' घुग्घी मां ' ( उल्लू के सामान बड़ी-बड़ी आंखों के कारण )बुलाते हैं. लोगों का आना-जाना प्राय: लगा रहता है. बदहवास सी एक लड़की को उनके घर के लोग ले आये थे. पता नहीं उस लड़की को क्या तकलीफ थी कि बस बडबड करने लगी थी. सभी ने पहले ' घुग्घी मां ' के चरण छुए फिर देवी-देवताओं की तस्वीर सहित नीबू-नारियल के आगे मत्था टेके. सब के साथ मैने भी वहां अपना शीश नवाया. ऊपर से नीचे तक एक भरपूर नजर मारकर  ' घुग्घी मां ' लड़क

'सत्ता' और 'सेना' की संस्कृति

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बड़ी खुरदरी खादी की कमीज और खादी का ही पैजामा पहनता है वो. कम से कम दो दिन तो कपड़ा चल ही जाता है लेकिन बीते दो दिनों में उसे कई बार अपने कपडे बदलने पड़ गए.छींक आई तो कपड़ा ख़राब...खांसी आई तो कपड़ा ख़राब. और तो और डकार आने पर भी वही हाल.  रामगुलाम काफी परेशान था. बार-बार दस्त और भूख न लगने की उसे शिकायत थी. घर वालों की सलाह पर उसने एक क्लीनिक की ओर रुख किया. वहां एक आलीशान टेबल लगी थी. उसमे बहुत सारा सामान बिल्कुल व्यवस्थित रखा हुआ था. सामने की कुर्सी में बैठा शख्स अपने गले में नब्ज़ और धड़कन टटोलने वाला यंत्र (स्थेटिस्कोप ) लटका रखा था. मरीज को  देखकर लग रहा था कि उसके शरीर में खून ही नहीं है. पूरा हड्डी का ढांचा लग रहा था वो.उसकी जाँच शुरू हुई. एक तेज रौशनी वाला टार्च जलाकर डाक्टर बोला- मुँह खोलकर फीधे आफ़मान की ओर देखो. जीब दिखाओ. फ़मफ्या क्या है...? फमयबद्ध भोजन  करते हो...? फ़राब पीते हो क्या..? किफ़ी फमारोह के फमागम में तो नहीं गए थे..? रामगुलाम ने सवालों के  यथायोग्य जवाब देते हुए दस्त न होने और भूख न लगने की परेशानी बताई. जाँच-परीक्षण बाद डाक्टर ने कहा- " एक-एक गोली फुब

चूभती हंसी....!

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" बातों से लग तो पूरा संपादक रहे हो लेकिन संपादकों सी मक्कारी कहाँ से लाओगे. हाँ....हाँ..( राजेश शर्मा ) बिल्कुल यही नाम था उस मक्कार का. विज्ञापनों में कहीं कोई कमी नहीं की. जगह-जगह उसने स्कूल खोला. लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने शक्तिमान (मुकेश खन्ना ) और बालीवुड कलाकार ( गुफी पेंटल ) को खुली जीप में गली- गली घुमाया. एक लाख एकमुश्त लेकर मेरे बच्चे की बारहवीं तक शिक्षा की गारंटी दी थी. मेरे जैसे न जाने और कितने छत्तीसगढ़ियों से अरबों वसूला. एक दैनिक अखबार (नेशनल लुक ) भी निकला जो हमारे एक पूर्व संसद की तरह बड़ी तेजी से उभरा था. समाचार लिखने वाले नौकरों ( साँरी  रिपोर्टरों  ) को दोगुनी-तिगुनी मजदूरी में बड़े अखबार ग्रुप से तोड़कर लगाया. बाद में ये ' घर के रहे न घाट के ' वाली स्थिति में आ गए. ' डाल्फिन ' को तो उसने बिना पानी के सागर में तैरने छोड़ दिया और पूरी झांकी के साथ ' नॅशनल लुक ' निकालने वाला अब लुका-छिपी का खेल, खेल रहा है."  एक साँस में वह न जाने और क्या-क्या बके जा रहा था. शायद मैंने यह कहकर उसकी दुखती रग को छेड़ दिया था कि मै भी अब अखबार निक